जैसा आम तौर पर लड़कियों के साथ होता है, बीए करते-करते मनीषा की शादी भी करा दी गई। इसके साथ ही उसे लगा कि मानों उसके कुछ कर दिखाने की तमन्ना का गला घोंट दिया गया हो। गला घोंटने वाले भी वही थे जिन्हें वह बेहद प्यार करती है और जो खुद भी उसे बेहद प्यार करते हैं, यानी उसके माता-पिता। पिता ने बेटी को बीए तक पढ़ाया और फिर आम माँ-बाप की तरह उससे कह दिया, इससे आगे तुम्हें कुछ करना है तो शादी के बाद, अपने सास-ससुर और पति की मंजूरी से करना।
अपने पति के घर आकर वह खुद भी घर-गृहस्थी में फंस गई। माँ ने समझा-सिखाकर भेजा था, सास-ससुर की सेवा करना। मायके के नाम पर किसी तरह धब्बा मत आने देना। पति को खुश रखना। इन सारी हिदायतों का ख्याल रखने के बाद उसे समय कहां मिल पाता था कि खुद अपने लिए भी कुछ सोचे। उसे इस बात का संतोष था कि उसने ससुराल में आकर अपने मायके का नाम खराब नहीं होने दिया है। पति के साथ-साथ सास-ससुर भी उससे खुश हैं। उसकी व्यवहार कुशलता के सब गुण गाते हैं। उसकी सेवा-सुश्रा से खुश होकर सास आशीर्वाद देती – दूधो नहाओ, पूतो फलो।
जल्दी ही उनका आशीर्वाद रंग लाया और उसने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया उत्कर्ष। घर की खुशियां और बढ़ गईं। वह भी खुश थी। उत्कर्ष के होने के ढाई साल बाद ही उसे दूसरा बेटा हुआ यश। दो पूतोंवाली की जितनी पूछ घर में होनी चाहिए, उतनी पूछ उसकी होती रही, पर कुछ काम करते हुए खुद अपने पैरो पर खड़े होने की इच्छा मन में ही रह गई। इसका दुख उसे मलाल बनकर सालता रहा, पर मन की टीस को उसने कभी उभरने नहीं दिया। सास का दिया हुआ आशीर्वाद कि पूतो फलो तो खूब फला, पर दूधो नहाओ की बात रह गई।
घर में सास-ससुर, देवर तो थे ही, ऊपर से दो बच्चों का खर्च भी जुड़ गया। हर मां की तरह उसकी भी इच्छा होती कि उसके छौने नए-नए, सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहनें। पति की कमाई में इतना कर पाना संभव नहीं था। उत्कर्ष के लिए तो थोड़ा-बहुत कर भी लिया था, पर यश को उत्कर्ष के उतारे कपड़े पहनाकर संतोष करना पड़ा। दोनों के लिए दूध-दवा करने के बाद पति की सारी कमाई चली जाती थी। तब मनीषा ने फैसला किया, अब वह कुछ जरूर करेगी। पति से सलाह ली तो उसने कहा कैसे करोगी? बच्चों को कौन संभालेगा? समस्या तो थी ही। फिर उसे अपने घर के पास एआईएसईसीटी का पता चला।
वहां जाकर पता लगाया तो मालूम हुआ कि यह संस्थान राष्ट्रीय कौशल विकास निगम से संबद्ध है, जो प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना का संचालन करता है। यह योजना उस जैसे हजारों-लाखों लोगों को सीखने और करने का मौका दे रही है। इस प्रशिक्षण केन्द्र में और चीजों के अलावा सिलाई-कढ़ाई भी सिखाई जाती है। फिर तो उसने ठान लिया कि चाहे जो भी हो, इस मौके को वह अपने हाथ से जाने न देगी। प्रशिक्षण केन्द्र घर से दूर नहीं था इसलिए आना-जाना वह खुद कर सकती थी। बच्चे छोटे थे और उनको देखना-भालना जरूरी था। इसके लिए उसने उपाय निकाला और बच्चों को सुलाकर सिलाई का कोर्स करने जाने लगी। कभी-कभार बच्चे जग जाते तो उनकी दादी उन्हें संभाल लेती थी। वह जल्दी ही वापस आ जाती और घर का काम उसी तरह करती रही इसलिए किसी को ज्यादा दिक्कत भी नहीं हुई।
जल्दी ही उसने अपनी बनाई कमीजें अपने बच्चों को पहनाईं। भले ही ये कमीजें उसने बचे-खुचे कपड़ों से बनाई हों, पर उसकी खुशी का पारावार नहीं था अपनी इस उपलब्धि पर। लगा मानो उसने बिना कमाए ही बहुत कुछ पा लिया। कमाया नहीं तो क्या, बचाया तो। अगर कपड़े खरीदने जाती तो पति की न जाने कितनी कमाई उसमें चली जाती। उसे आत्मसंतोष के साथ अपनी अस्मिता का भी बोध हुआ। और यह सब संभव हो सका प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की बदौलत। अपनी लगन से उसने वहां बहुत कुछ सीखा और फिर सरकारी मदद से सिलाई मशीन खरीदकर घर पर ही अपनी दुकान जमा ली। अब वह घर पर रहकर ही लोगों के कपड़े सिलती है। अपने सास-ससुर और बच्चों की देखभाल करती है और घर के खर्चे में अपने पति का हाथ भी बंटाती है। अपनी उद्यमशीलता से उसने साबित कर दिया है कि पिया से किसी भी तरह कम नहीं है प्रिया।