क्या आप किसी ऐसे नलसाज या नल मिस्त्री को जानते हैं, जो लड़की हो! नहीं ना, मैं भी नहीं जानता था, कम से कम अब से पहले तो नहीं ही। अब से पहले यानी तब तक जब तक कि मैंने नाजरीन के बारे में नही सुना था! नाजरीन का नाम लेकर मैंने आपको और भी चौंका तो नहीं दिया? आपका सवाल दुरुस्त है। क्या नाजरीन ही वह लड़की है, जिसकी बात मैं कर रहा हूं? अव्वल तो किसी लड़की का नलसाज होना ही आश्चर्य की बात है और फिर वह लड़की अगर किसी मुस्लिम परिवार से हो तो आपका चौंक उठना स्वाभाविक है।
बनारस के बुनकर परिवार में जन्मी और पली-बढ़ी नाजरीन अपनी चार बहनों में सबसे छोटी है। वैसे उसके चार भाई भी हैं, पर परिवार का पालन-पोषण अकेले पिता के कंधे पर रहा। हां, अब नाजरीन भी घर चलाने में अपने पिता का हाथ बंटाती है। जब तक पिता परिवार में अकेले कमाऊ व्यक्ति थे, घर चलाना मुश्किल हो जाता था। बुनकर के खानदानी पेशे में बहुत लाभ नहीं था। नाजरीन छोटी भले ही हो, पर है सयानी। 12वीं तक की पढ़ाई भी उसने पूरी कर ली है।
12वीं के बाद क्या किया जाए, इसे लेकर अकसर ही युवाओं में पशोपेश रहता है। 12वी तो क्या, बीए-एमए करने के बाद भी उन्हें नहीं पता रहता कि वे आगे क्या करना चाहते हैं। किसी भेड़-चाल की तरह सब एक-दूसरे की देखा-देखी डिग्री कालेज में दाखिला ले लेते हैं। यहां भी पता नहीं होता कि उन्हें किस विषय में पढ़ाई करनी है। जहां दाखिला मिल गया, वही विषय ले लिया। नाजरीन भी ऐसा ही कुछ कर सकती थी। ऊर्दू या होम साईन्स किसी में भी वह दाखिला ले सकती थी। पिता को उसके पढ़ने पर ऐतराज नहीं था। पर उसने ऐसा नहीं किया।
एक दिन उसने घर आकर अपने पिता को बताया कि वह नल का काम सीखना चाहती है तो उन्हें आश्चर्य जरूर हुआ, पर उन्होंने अपनी बेटी को मना नहीं किया। हां, इतना जरूर जानना चाहा कि ऐसा वह क्यों करना चाहती है। भारतीय नलसाज कौशल परिषद (इंडियन प्लम्बिंग स्किल्स काउंसिल) की प्रचार सामग्री से उसे जितनी जानकारी मिली थी, उसने अपने पिता को बता दी। माता-पिता दोनों को यह जानकर संतोष हुआ कि काम सीखने के बाद बेटी को नौकरी मिल जाएगी। उन्हें प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के बारे में भी पता चला।
माता-पिता की रजामंदी के बाद भी नाजरीन के लिए यह सफर आसान नहीं था। आस-पड़ोस में जिस किसी ने भी सुना, उसने यही कहा, लड़की होकर नलसाज बनेगी? कुछ ने तो यहां तक ताना दिया कि मुस्लिम परिवार की लड़कियां ऐसे काम नहीं करतीं। नाजरीन नें इसपर बहुत सोचा। उसे लगा कि काम तो काम है, चाहे वह घड़ीसाज का हो या नलसाज का। और फिर काम करके परिवार को पालने का ठेका क्या मर्दों ने ही उठा रखा है? क्या लड़कियां काम नहीं कर सकतीं? इस बारे वह जितना ही सोचती, उतना ही उसके इरादे मजबूत होते जाते।
उसके परिवार का पेट भरने आस-पड़ोस के लोग तो आएंगे नहीं। यह काम तो उसे ही करना होगा। फिर इस काम में बुराई क्या है? उसके पिता ही तो उसे बताते रहे थे कि जिस भी काम में इज्जत से दो रोटियां मिल जाएं, वह काम अच्छा है। उसे किसी फिल्म का गाना याद आ गया – कुछ तो लोग कहेंगे। लोगों का काम है कहना। इसके बाद उसने तय कर लिया कि उसे करना क्या है। माता-पिता के आशीर्वाद के साथ उसने वाराणसी के इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्निकल एडुकेशन में नाम लिखा लिया। यह संस्थान प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत भारतीय नलसाज कौशल परिषद की देखरेख में चलाया जाता है।
यहां भी फब्तियां कसने वालों की कमी नहीं थी। कोई लड़की जानकर छेड़ता तो कोई उसका मनोबल तोडने की कोशिश करता कि तीन महीनों की पढ़ाई से क्या नौकरी मिल जाएगी। उसके लिए बात तीन महीनों की नहीं थी। बात थी कौशल प्राप्त करने की। उसे विश्वास था कि एक बार वह इस काम के बारे में जान-समझ ले तो फिर खुद परिश्रम कर के इसकी बारीकियां भी सीख लेगी। उसके पिता ने ही उसे बताया था कि काम की बारीकियां किसी स्कूल की पढाई से नहीं सीखी जा सकती। इसके लिए काम करना पड़ता है। वह उससे अकसर कहा करते – करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। क्लास में सीखने के साथ-साथ वह अभ्यास भी करती रही। इतना कि उसने प्रशिक्षण संस्थान में रहते हुए ही अपना हाथ काफी मांज लिया। प्रशिक्षण केन्द्र ने भी उसे अभ्यास का अच्छा मौका दिया। इससे साभ यह हुआ कि प्रशिक्षण पूरा करने पर उसे प्रमाण-पत्र तो मिला ही नौकरी भी मिल गई।
आज वह वाराणसी के तीन सितारा होटल हिन्दुस्तान में काम करती है, जहां उसे अच्छा पैसा मिलता है। वह खुश है कि परिवार को चलाने में वह अपने पिता की मदद कर पाती है। आस पड़ोस के जो लोग पहले फब्तियां कसते थे, अब उसे पोशाक में देखकर उसकी इज्जत करते हैं। लेकिन इससे बी बड़ी बात यह कि उसके कौशल ने उसे देश के प्रधानमंत्री के सामने अपना हुनर दिखाने का मौका दिया। उसके माता-पिता यह बताते हुए फूले नहीं समाते।